Friday, December 30, 2011

Gorakh Nath & Kan Phata Yogis Hinduism Preservers

शिवस्वरूप, नाथरूप महायोगी अपनी योगसिद्ध दिव्य देह मे अमर हैं
सत्ययुग, त्रेता, द्वापर और कलियुग – चारौ युगों मे ही जगत के प्राणियों के कल्याण के लिए अपने दिव्य शरीर मे प्रकट होते रहते हैं
जोधपुर के महाराजा मानसिंह ने जो अपने समय के प्रसिद्ध नाथ सम्प्रदायी थे, अपनी ‘श्रीनाथतीर्थवाली’ रचना मे गोरखनाथ जी के चारौ युगों मे विद्धमान रहने का संकेत 379 वें श्लोक – ‘प्रसिद्ध मेतन्नाथस्य स्थान युगचतुष्टये’ मे दिया है
गोरखनाथ जी स्वप्रकाश – स्वरूप महायोगी है
‘श्रीनाथतीर्थवाली’ से ही पता चलता है कि उन्होने समय – समय पर भारत के विभिन्न स्थानो मे तपस्या की थी
सौराष्ट्र, पंजाब, उत्तराखंड मे हिमालय के अनेक स्थान, कर्नाटक तथा बंगाल आदि मे गोरखनाथ जी के योगपीठ इस तथ्य के परिचायक हैं
यह निश्चित है कि वे देहसिद्ध अमरकाय महायोगी हैं
महमति ब्रिग्स ने अपनी पुस्तक ‘गोरखनाथ एण्ड दि कनफटा योगीज’ (पृ0 – 228) मे एक परम्परा का निरूपण किया है कि गोरखनाथजी ने सत्ययुग मे पंजाब मे तप किया, त्रेतायुग मे उन्होने गोरखपुर मे तपस्या की, द्वापरयुग मे वे द्वारिका (हरमुज) मे तप मे प्रवृत थे
कलियुग मे सौराष्ट्र के काठियावाड़ स्थान के गोरखमढ़ी को उन्होने धन्य किया
सत्ययुग मे पंजाब प्रदेश मे झेलमनदी के किनारे गोरखटिल्ला स्थान मे गोरखनाथ जी ने तप किया था
त्रेतायुग मे गोरखनाथ जी की विद्धमानता का वर्णन करते हुए ‘श्रीनाथतीर्थवाली’ मे दो सौ तीसरे श्लोक से दो सौ सातवे मे कहा गया है कि पूर्व दिशा के तीर्थों मे सबसे पहले (गोरक्षपुर) गोरखपुर स्थान है
उसके उत्तर भाग मे पुण्यप्रद (गोरक्ष) गोरखनाथ जी का स्थान है
त्रेतायुग के रामावतार मे इस स्थान का वर्णन आया है
इस स्थान से एक कोस (3 किलोमीटर) दूर पश्चिम दिशा मे इरावती (राप्ती) नदी है
यहाँ गोरखनाथ जी की काठ की पादुका विद्दमान हैं
यहाँ से सात कोस (21 किलोमीटर) दूर चतुर्मुख गाँव है
उसके उत्तर मे दो साथ पग (कदम) दूर उत्तम स्थान मे गोरखनाथ जी ने अपने कानों को छेदा था
पर्वत पर आज भी श्रीरामचंद्रजी का चिन्ह है
इस वर्णन से त्रेतायुग मे विद्दमान गोरखनाथ जी ओर अवतार लेने वाले भगवान राम के पारस्परिक संबंध पर प्रकाश पड़ता है
कहा जाता है कि गोरखपुर मे स्थिति गोरखनाथ जी कि तप : स्थली मे रघुवंशी नरेश रघु, अज और भगवान राम ने उनका दर्शन कर अपने आप को धन्य किया था
त्रेता युग मे महायोगी गोरखनाथ ने अपनी तप : स्थली मे अखंड ज्योति प्रज्वलित की थी
यह ज्योति आज भी मंदिर के गर्भ गृह मे अनवरत अनेक झंझावातों तथा प्रलयसदृश उत्पादों के आघात – प्रतिघात का सामना करती हुई अखंड रूप से जल रही है
त्रेतायुग मे ही इस तप : स्थली पर गोरखनाथ जी ने अखंड धूना भी प्रज्वलित किया था, जो आज भी दर्शनीय है
कहा जाता है कि भगवान राम के राज्याभिषेक – उत्सव मे पधार कर आशीर्वाद देने के लिए आमंत्रित किया गया था, पर वे तपस्या मे लीन थे, इसलिए उस महान अवसर पर उनका आशीर्वाद मात्र ही भेजा गया था
द्वापर युग मे जूनागढ राज्य मे प्रभासपटटन के समीप गोरखमढ़ी मे उन्होने तप किया था
महाराजा मानसिंह ने अपनी ‘श्रीनाथतीर्थवाली’ रचना के 31वे से 38वे श्लोको मे वर्णन किया है कि (रैवतक पर्वत से) पश्चिम देश मे क्षेत्रो मे श्रेष्ठ प्रभास क्षेत्र है
वहाँ गोरक्षमठिका (गोरखमढ़ी) का परम धाम है
उस स्थान पर भगवान क्रष्ण का भगवती रुक्मिणी से से विवाह सम्पन्न हुआ था
रुक्मिणीजी के रूप के लावण्य से देवता मोहित हो गये
तब ऋषियों तथा अन्य लोगों ने वहाँ विराजमान गोरखनाथजी का स्तवन किया कि आप दर्शन दीजिये
प्रसन्न होकर महायोगी गोरखनाथ ने उन लोगों को दर्शन दिया
गोरखनाथ जी के स्नेह और आशीष से कंकणबन्धन सम्पन्न हुआ
भगवान क्रष्ण ओर रुक्मिणीजी ने गोरखनाथ जी का बडी श्रद्धा से स्तवन किया
यह स्तवन सारे संसार मे प्रसिद्ध है
कल्पद्रुमतंत्र के ‘गोरक्षस्तोत्रराज’ में श्री क्रष्ण के उदगार हैं कि से गोरखनाथजी ! आप निरंजन, निराकार हैं, सिद्ध आप की वंदना करते हैं
आप को नमसकर है
आप सिद्धों के महासिद्ध हैं
ऋषियों के ऋषीश्वर हैं और योगियों के योगीन्द्र हैं
आप शून्यों मे भी परमशून्य है
परमेश्वरों के परमेश्वर हैं
ध्यानियों के ध्येय, धाम – परमपद हैं
हे गोरखनाथजी ! आपको नमसकर है
इस तरह से स्तुति करने पर गोरखनाथ जी प्रसन्न हो गये ओर दिव्यदंपति भगवान क्रष्ण और महारानी रुक्मिणी से वर मांगने को कहा
भगवान क्रष्ण ने बडी श्रद्धा से विनम्रता पूर्वक कहा कि हे नाथ ! आप यहाँ निवास कीजिये
नाथजी महायोगी गोरखनाथ जी ने ‘तथास्तु’ कहा ओर वहाँ प्रतिष्ठित हो गये




लोकमानस मे गोरखनाथ जी के चरित् से द्वापर युग की यह अनुश्रुति परम्परा से सम्मानित है कि वे गोरखपुर के तप : स्थल मे विराजमान थे
उस समय धर्मराज युधिष्ठिर का राजसूय यज्ञ सम्पन्न हो रहा था
उसमे पधारने के लिए निमंत्रण देने स्वम पांडव वीर भीमसेन गोरखपुर आए थे
उस समय महायोगी गोरखनाथ जी समाधि मे तल्लीन थे
भीम सिंह प्रतीक्षा करने का आग्रह किया गया
भीमसेन ने कुछ समय तक इस तप : स्थल मे विश्राम किया
कहा जाता है कि इनके शरीर के भार से प्रथ्वी का यह भाग दाब जाने पर उस स्थान पर एक सरोवर बन गया
यह सरोवर आज भी मंदिर के प्रगण मे दर्शनीय है
इस घटना के स्मारक रूप मे भीमसेन की शयनमुद्रा में विश्राम करती एक विशाल प्रस्तरप्रतिमा भी दर्शनीय है
इस तरह यह बात स्वतः सिद्ध है कि गोरखनाथ जी अमरकाय योगी हैं




कलियुग मे महायोगी गोरखनाथ जी ने पेशावर के किले मे गोरखहट्टी स्थान मे तपस्या की थी
कलियुग मे तो अनेक स्थानों पर प्रकट होकर योग साधको और पुण्यात्माओं को दर्शन देने का व्रतांत बहुलता से उपलब्ध होता है
चारों युगों के उनके जीवन से संबन्धित स्थान उनके तप : स्थल हैं
उन्होने समाधि ली ही नहीं
अपनी योगदेह मे अमरकाय योगी के रूप मे वे नित्य विद्धमन हैं
संत कबीर ने अपनी एक साखी मे ‘साषी गोरखनाथ ज्यूं अमरभय कलि माहि’ – उन्हे अमर कहा है
इसी तरह महान सूफी कवि मालिक मुहम्मद जायसी ने पदमावत मे वर्णन किया है कि जब गोरखनाथ जी से भेट होती है, तभी योगी सिद्ध होता है
इसमे तनिक भी संदेह नहीं है कि गोरखनाथ जी अपनी योगसिद्ध देह मे नित्य, विद्धमन, ज़ीवन मुक्त, अमर योगेश्वर हैं
उनका प्रत्यक्ष दर्शन समय – समय पर सौभाग्यशाली योगियों, सिद्धों और महात्माओ तथा जनसामान्य को भी होता रहा हैं
वे चारों युगों को अपनी योगसिद्धि और व्यक्तित्व से क्रतार्थ और प्रभावित करते रहते है




गोरखनाथजी की सिद्ध योगदेह मे उनकी अमरकायता के स्तर पर यह स्वीकार करने मे तनिक भी आपत्ति नहीं है कि योग साधक के मान मे उनके प्रत्यक्ष दर्शन कि कामना होने पर वे स्वत: प्रकट हो जाते हैं और अपनी योगमयी सन्निधि – विद्धमनता अथवा व्यापकता से लोगों को क्रतार्थ करते रहते है
उनके योग विग्रह का प्रत्यक्ष दर्शन होने के तथ्य से नाथ सम्प्रदाय की महनीयता युग – युग से अनुप्राणित होती आ रही है
अमरकाय योग विग्रह महायोगी गोरखनाथ परम अभिवंध हैं


Doha = Di Haath ( Two Line Poems)

1).Kathiyavad ma kok di bhulo pad bhagwan...
tha ne amaro mehmaaaan,
tara eva karu sanmaan,
tane swarg bhulavu shamla.






2).Shiyale sorath(saurashtra) bhalo,
Unale gujarat,
Varkhama Vagad(vagad pradesh) bhalo,
Maro kutchhdo baremaas.






3).Shiyale shiro bhalo,
Unale meethi chhas,
Chomase bhajiya bhala,
Ane amare Khichdi baaremaas
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Another Example of Saurashtra Sahitya Doha
 
( ek bijo doha chhe.....aama pan kutchhi touch chhe...just for u...)






Asaan(ame) girivarja(dungrao na) morlaaaa......
(ane)ame kankar pet bharaaaa....
amari rut aave nav bolieeeeee........
to to amara haida faaaat mara...


Translation :


Ame dungaro na morla(peacocks)...kaankra pathra khaine pet bharie....to pan.....amari rutu(amara bolvani rutu..chomasu) aave tyare na bolie....to amara haiya(dil) faatine mari jaie.....

Source : http://www.shayri.com/forums/showthread.php?t=34385

Thursday, December 1, 2011

HISTORY ON A BANNER - Written by Nana Chudasama

Narendrasinhji Mansinghji Chudasama, more popularly known as Nana Chudasama is an eminent activist representing the common man, and a former Sheriff of Mumbai. Born in a prominent Rajput family from Saurashtra, he was the second of four sons.




Nana became the founder of the NGO Giants International which has over 500 branches spread all across India and in 10 countries abroad. Giants undertakes projects that have an immense impact on society, such as family welfare, disaster management, education and environment.



HISTORY ON A BANNER is a compilation of Nana Chudasama’s thought-provoking Marine Drive banners – embedded in satire, puns and humour. The book echoes the voice of the common man and is a fascinating journey into the archives of history. It is an interesting chronicle of recent events which have been instrumental in shaping our collective destinies. To those who have not had the fortune of savouring the rib-tickling humour and sarcasm of Nana Chudasama until now, this book is an invitation to do so. Enjoy the dreams and angst of the common man reflected effectively in Nana Chudasama’s banners!

Saurashtra King Faced Alexander

The article from Journal Cimmerian :


When Donn Othna and his Saxon captors sail storm-driven and battered into the harbour of Nagdragore on the Gulf of Cambay, after a voyage for which epic is an understatement, the Briton’s sword hums faintly. Donn Othna explains that it sings because it’s coming home. “It was here that my sword was born from furnace and forge and wizard’s hammer, dim ages ago. It was once a great saber belonging to a mighty Eastern emperor … ”




Donn Othna might well believe the sword, if Indian, was a work of wizardry. The original Damascus steel was developed in India, and it was long centuries before such superb blades were able to be made in the Middle East. Persians and then Syrians did eventually learn the art, but they couldn’t equal the results without importing the raw steel from India to work with. It’s likely that the iron ore from certain mines in southern India contained a particular combination of trace elements — vanadium, nickel and others — that made the blades unique once they were forged with painstaking art to produce high-carbon steel.


We can assume the “great saber” was a typical Indian tulwar. Who the “mighty Eastern emperor” could have been is a matter for guesswork, but the blade’s history makes it clear that he lived before Alexander the Great. Maybe he was Darius I of Persia. Darius conquered the Indus valley shortly before 500 B.C. The various kingdoms of northern India at the time — the sixteen mahajanapadas or “great countries” — would have become worried by that. Despite their name, none was so great or powerful next to the Persian Empire. One of them, Avanti, lay squarely where the much later “Nagdragore” was situated, east of the Gulf of Cambay. Another kingdom, Saurashtra, though not one of the sixteen, lay on the Gulf itself. Nagdragore probably combined the former territories of both

More details at : http://www.thecimmerian.com/a-double-edged-blade-of-a-sinister-blue/